
गया: बिहार के गया जिले से 15 किलोमीटर दूर स्थित ईश्वरपुर गांव को ‘म्यूजिशियन गांव’ के नाम से जाना जाता है। इस गांव की खासियत यह है कि 250 घरों वाले इस छोटे से गांव का हर घर संगीत से जुड़ा हुआ है। जब आप इस गांव की गलियों से गुजरेंगे, तो मधुर संगीत की स्वर लहरियां आपके कानों में गूंजने लगेंगी। ऐसा लगता है जैसे यहां की मिट्टी में भी संगीत रचा-बसा है।
हर घर में हैं संगीत के जानकार
ईश्वरपुर गांव में हर उम्र के लोग—बच्चे, युवा और बुजुर्ग—संगीत की बारीकियों में निपुण हैं। यहां तबला, हारमोनियम, सितार, ध्रुपद, ठुमरी, ख्याल, पखावज, तालपुरा जैसे शास्त्रीय संगीत के विभिन्न रूप पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहे हैं। यह गांव भारतीय शास्त्रीय संगीत के चारों पट (ध्रुपद, धमाल, ठुमरी, ख्याल) की समृद्ध परंपरा को जीवित रखे हुए है।
विदेशों तक पहुंचा ईश्वरपुर का संगीत
ईश्वरपुर गांव का संगीत न केवल देशभर में बल्कि विदेशों तक अपनी पहचान बना चुका है। यहां के कलाकार भारत के विभिन्न राज्यों में उच्च पदों पर कार्यरत हैं और कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर चुके हैं।
गांव के कई दिग्गज संगीतज्ञों ने अपनी कला से देश का नाम रोशन किया।
- स्व. कामेश्वर पाठक को संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली से सम्मानित किया गया था।
- स्व. श्रीकांत पाठक ऑल इंडिया रेडियो के गायक थे।
- स्व. बलिराम पाठक को ‘सितार-ए-हिंद’ की उपाधि से नवाजा गया था।
- स्व. जयराम तिवारी को ठुमरी का बादशाह कहा जाता था।
- स्व. मदन मोहन उपाध्याय प्रसिद्ध तबला वादक थे और लखनऊ रेडियो स्टेशन में कार्यरत थे।
वर्तमान में भी कई कलाकार ईश्वरपुर का नाम रोशन कर रहे हैं—
- रवि शंकर उपाध्याय (संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली में प्रोफेसर)।
- महिमा उपाध्याय (दिल्ली में संगीत के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त)।
- विनोद पाठक (विश्व स्तरीय तबला वादक, जाकिर हुसैन के साथ प्रस्तुति दे चुके)।
- अशोक पाठक (विदेश में सितार वादन के लिए प्रसिद्ध)।
- विनय पाठक (संगीत कम्पोजिशन में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बना रहे हैं)।
400 साल पुरानी है संगीत परंपरा
ईश्वरपुर गांव की संगीत परंपरा करीब 400 साल पुरानी है। राजस्थान से आए गौड़ ब्राह्मणों को टिकारी महाराज ने राजकीय गायक का दर्जा दिया और 1100 एकड़ भूमि देकर इस गांव को बसाया।
गांव के संगीतज्ञ मनीष कुमार पाठक बताते हैं कि हमारे पूर्वज राजस्थान के राजदरबारों में शाही गायक थे। जब मुगल आक्रमण के कारण राजस्थान का राजघराना संकट में आया, तो वे टिकारी महाराज के आमंत्रण पर बिहार आए और यहीं बस गए।
‘तानसेन के वंशज से है जुड़ाव’
मनीष कुमार पाठक के अनुसार, ईश्वरपुर के लोग दरभंगा, डुमरांव, बेतिया और गया घराने से ताल्लुक रखते हैं और तानसेन के वंशजों से उनका संबंध माना जाता है। यही कारण है कि यहां का संगीत आज भी अपनी प्राचीन शास्त्रीय जड़ों से जुड़ा हुआ है।
हर जाति और वर्ग के लोग जुड़े
शुरुआत में केवल गौड़ ब्राह्मण संगीत से जुड़े थे, लेकिन धीरे-धीरे यह कला गांव के हर जाति और वर्ग में फैल गई। अब गांव में हर घर से कोई न कोई व्यक्ति संगीत से जुड़ा हुआ है।
‘सरस्वती का नैहर है ईश्वरपुर’
गांव के नित्यानंद कुमार पाठक बताते हैं कि ईश्वरपुर को माता सरस्वती के नैहर (मायका) के रूप में जाना जाता है। बीपीएससी परीक्षा की तैयारी करने वाले छात्र पंडित बलिराम पाठक को पढ़ते हैं, जिन्हें ‘सितार-ए-हिंद’ की उपाधि दी गई थी।
सरकार से उम्मीदें बरकरार
हालांकि, ईश्वरपुर के लोगों को इस बात का मलाल है कि बिहार सरकार ने अभी तक इस गांव की संगीत विरासत को वह सम्मान नहीं दिया, जिसकी यह हकदार है। ग्रामीणों को उम्मीद है कि एक दिन सरकार ईश्वरपुर के संगीत को पहचान देगी और इसे बिहार की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बनाएगी।
ईश्वरपुर, एक ऐसा गांव जहां संगीत केवल कला नहीं, बल्कि जीवन का एक अभिन्न अंग है।