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उत्तराखंड में नए जिलों का मुद्दा: वादे, घोषणाएं और अधूरी उम्मीदें

The issue of new districts in Uttarakhand: Promises, announcements and unfulfilled expectations

देहरादून: उत्तराखंड की राजनीति में जन भावनाएं हमेशा से एक अहम स्थान रखती हैं, और इसी भावना के आधार पर कई बड़े निर्णय लेने के वादे किए गए। लेकिन इन वादों पर वास्तविकता में काम करने के बजाय, वे केवल घोषणाओं और राजनीतिक लाभ तक सीमित रह गए। राज्य स्थापना के 24 साल बीतने के बाद भी नए जिलों का मुद्दा लगातार अधर में लटका हुआ है। हर चुनाव के दौरान नए जिलों की घोषणा होती रही, लेकिन वे कभी जमीन पर नहीं उतर पाए। राज्य में नई प्रशासनिक इकाइयों की मांग को लेकर जनता बार-बार आवाज़ उठाती रही, परंतु इसे लेकर किसी भी सरकार ने ठोस कदम नहीं उठाया।

निशंक ने की पहली घोषणा, फिर सब रह गया अधूरा

 

उत्तराखंड में नए जिलों की घोषणा सबसे पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक ने 15 अगस्त 2011 को स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर की थी। निशंक ने उत्तरकाशी के यमुनोत्री, पौड़ी के कोटद्वार, पिथौरागढ़ के डीडीहाट और अल्मोड़ा के रानीखेत को नए जिलों के रूप में गठित करने की घोषणा की। इस घोषणा से जनता में उम्मीद जगी, परंतु यह केवल घोषणा बनकर रह गई।

बाद में, काशीपुर को भी जिला बनाए जाने की मांग जोर पकड़ने लगी, और इस पर भी सहमति दे दी गई। लेकिन राजनीतिक उठापटक में निशंक अपनी कुर्सी नहीं बचा सके। उनके बाद मुख्यमंत्री बने भुवन चंद्र खंडूरी ने चुनाव से ठीक पहले 2011 में शासनादेश जारी किया, परंतु बजट आवंटन के अभाव में मामला फिर से ठंडे बस्ते में चला गया।

विजय बहुगुणा ने जिला पुनर्गठन आयोग का गठन किया

 

2012 में सत्ता में आई कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने जिला पुनर्गठन आयोग का गठन किया। हालांकि, इस आयोग का गठन भी केवल एक औपचारिकता साबित हुआ, और नए जिलों के गठन के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। इसके बाद कांग्रेस के हरीश रावत मुख्यमंत्री बने और उन्होंने पांच के बजाय नौ नए जिलों की घोषणा कर दी। रावत ने पुनर्गठन के लिए 100 करोड़ रुपये का प्रावधान किया, लेकिन यह योजना भी राजनीतिक लाभ के आगे सफल नहीं हो पाई।

नए जिलों के लिए भारी खर्च और सीमित संसाधन

 

वरिष्ठ पत्रकार नीरज कोहली के अनुसार, उत्तराखंड में नए जिलों का गठन करने की सबसे बड़ी चुनौती खर्च का मुद्दा रहा है। नए जिले बनाने में सैकड़ों करोड़ रुपये की जरूरत पड़ती है, जबकि राज्य की आर्थिक स्थिति पहले से ही कमजोर है। उत्तराखंड वित्तीय रूप से इतनी मजबूत स्थिति में नहीं है कि नए जिलों का खर्च वहन कर सके। इसके अलावा, जिस भी क्षेत्र को नए जिले के रूप में गठित किया जाएगा, वहां की जनता की अपेक्षाएं बढ़ेंगी, और अन्य क्षेत्रों से भी यही मांग उठेगी, जिससे राजनीतिक दबाव और बढ़ जाएगा।

परिसीमन के बाद बदल सकते हैं समीकरण

 

आगामी परिसीमन के बाद उत्तराखंड के मैदानी जिलों में विधानसभा सीटों की संख्या बढ़ने की संभावना है, जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में सीटें कम हो सकती हैं। इससे नए जिलों के गठन को लेकर राजनीतिक दलों के समीकरण बदल सकते हैं। शायद इसी कारण से स्थाई राजधानी का मुद्दा भी अभी तक अनसुलझा है। राज्य की अस्थायी राजधानी देहरादून है, जबकि गैरसैंण को लेकर जनता में भावनात्मक जुड़ाव है। परंतु कोई भी सरकार इसे पूरी तरह से राजधानी घोषित नहीं कर पाई है।

भाजपा का रुख और भविष्य की योजना

 

भाजपा नेता जोत सिंह बिष्ट का कहना है कि सरकार इस मुद्दे पर विचार कर रही है। उनका मानना है कि किसी भी नई प्रशासनिक इकाई के गठन से पहले संसाधनों का जुटाना जरूरी है। भाजपा का कहना है कि संसाधनों के आधार पर ही नए जिलों के गठन पर निर्णय लिया जाएगा। लेकिन अब तक यह भी एक वादा ही बनकर रह गया है।

निष्कर्ष

 

उत्तराखंड में नए जिलों के गठन का मुद्दा हमेशा से चुनावी वादों और घोषणाओं के इर्द-गिर्द ही सिमटा रहा है। राज्य की जनता को केवल घोषणाओं के जरिए आश्वासन दिए गए, लेकिन जमीनी हकीकत में कोई ठोस बदलाव नहीं हुआ। राजनीतिक दलों के लिए यह मुद्दा एक वोट बैंक की चाबी बना हुआ है, और जनता को उम्मीद है कि आने वाले समय में उनकी मांगों पर वास्तविकता में अमल होगा।

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