उत्तराखंड

देवीधुरा बग्वाल: सात मिनट का फल-फूल युद्ध, 150 से अधिक योद्धा घायल

Devidhura Bagwal: Seven minutes of fruitful battle, more than 150 warriors injured

रक्षाबंधन के दिन देवीधुरा का माहौल पूरी तरह अलग था। सुबह से ही मां बाराही मंदिर परिसर और आसपास के क्षेत्रों में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी। ढोल-दमाऊं की थाप और जयकारों के बीच भक्त खोलीखाड़ चुर्बा चौड़ मैदान की ओर बढ़े, जहां सदियों से चला आ रहा बग्वाल मेला आयोजित होता है। इस बार केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्री अजय टम्टा मुख्य अतिथि रहे, जबकि मुख्यमंत्री धराली आपदा के चलते कार्यक्रम में शामिल नहीं हो सके।

सात मिनट में सिमटा जोश और परंपरा

दोपहर 1 बजकर 58 मिनट पर बग्वाल की शुरुआत हुई। प्रारंभ में योद्धाओं ने एक-दूसरे पर फल और फूल बरसाए, जिसके बाद प्रतीकात्मक रूप से पत्थर युद्ध का आभास कराया गया। ठीक 2 बजकर 5 मिनट पर युद्ध समाप्त हो गया। महज सात मिनट के इस रोमांचक आयोजन में 150 से अधिक प्रतिभागी घायल हुए, जिन्हें मौके पर मौजूद स्वास्थ्यकर्मियों ने तत्काल उपचार दिया।

चार खाम और सात थोक की शिरकत

इस परंपरा में चार प्रमुख खाम—चम्याल, गहड़वाल, लमगड़िया और वालीक—के योद्धा पारंपरिक वेशभूषा में मैदान में उतरे। वालीक खाम ने सफेद, चम्याल ने गुलाबी, गहड़वाल ने भगवा और लमगड़िया ने पीले वस्त्र धारण किए। साथ ही सात थोकों की टीमें भी इस युद्ध का हिस्सा बनीं।

नरबलि से पाषाण युद्ध और अब फल-फूल युद्ध तक

किंवदंती है कि प्राचीन काल में मां बाराही को प्रसन्न करने के लिए नरबलि दी जाती थी। एक बार चम्याल खाम से बलि देने की बारी ऐसे परिवार की आई, जिसमें केवल एक बुजुर्ग दादी और उसका पोता बचा था। दादी की प्रार्थना पर मां बाराही ने नरबलि की जगह पत्थरों का युद्ध करने का आदेश दिया, जिसमें एक व्यक्ति जितना रक्त बहाना अनिवार्य था। तब से यह परंपरा जारी है।

हाईकोर्ट का हस्तक्षेप और परंपरा में बदलाव

2013 में सुरक्षा कारणों से हाईकोर्ट ने पत्थरों की जगह फल और फूलों का उपयोग करने का आदेश दिया। इसके बाद ‘पाषाण युद्ध’ की जगह ‘फल-फूल युद्ध’ ने ले ली, जिससे जोश बरकरार रहते हुए भी प्रतिभागियों और दर्शकों की सुरक्षा सुनिश्चित हुई।

कोविड काल में भी कायम रही आस्था

कोरोना महामारी के समय भी यह आयोजन रुका नहीं, हालांकि सीमित लोगों की उपस्थिति और कड़े नियमों के साथ इसे संपन्न किया गया। यह दर्शाता है कि बग्वाल मेला केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि आस्था और विरासत का प्रतीक है।

पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा

इस अवसर पर स्थानीय बाजारों, हस्तशिल्प विक्रेताओं और होटल-ढाबों में खासा व्यापार होता है। देश-विदेश से आने वाले पर्यटक न केवल परंपरा का अनुभव करते हैं, बल्कि स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी योगदान देते हैं।

श्रद्धालुओं का अनोखा अनुभव

दूर-दराज से आए लोगों ने इस आयोजन को आस्था, साहस और भाईचारे का अद्भुत संगम बताया। बग्वाल मेला न केवल एक ऐतिहासिक धरोहर है, बल्कि सामूहिक एकजुटता का भी प्रतीक है।

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