
देहरादून: उत्तराखंड में त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव को लेकर स्थिति लगातार असमंजस में बनी हुई है। एक जून को प्रदेश के 12 जिलों में तैनात पंचायत प्रशासकों का कार्यकाल समाप्त हो गया, जिससे राज्य के इतिहास में पहली बार पंचायतें मुखिया विहीन हो गई हैं। अब न तो निर्वाचित प्रतिनिधि हैं और न ही प्रशासक। इस संवैधानिक संकट के बीच अब सभी की निगाहें चार जून को होने वाली राज्य मंत्रिमंडल की बैठक पर टिकी हैं, जिसमें पंचायत चुनाव और प्रशासकों के कार्यकाल को लेकर स्थिति स्पष्ट हो सकती है।
प्रशासकों का कार्यकाल समाप्त, चुनाव पर स्थिति अस्पष्ट
नवंबर 2024 में पंचायतों का नियमित कार्यकाल समाप्त हो गया था। चुनाव समय पर न हो पाने की स्थिति में शासन ने प्रशासकों की नियुक्ति की थी। लेकिन अब 28 नवंबर को ग्राम पंचायतों, 30 नवंबर को क्षेत्र पंचायतों और एक जून को जिला पंचायतों में नियुक्त प्रशासकों का कार्यकाल भी समाप्त हो चुका है। ऐसे में पंचायतें पूरी तरह नेतृत्वविहीन हो गई हैं, जो एक चिंताजनक स्थिति है।
अध्यादेश की प्रतीक्षा में सरकार
सरकार ने पंचायती राज अधिनियम में संशोधन कर प्रशासकों का कार्यकाल बढ़ाने के लिए अध्यादेश का प्रस्ताव तैयार कर राजभवन भेजा है। लेकिन अभी तक राज्यपाल कार्यालय से उसकी अनुमति नहीं मिल पाई है। बताया जा रहा है कि राजभवन द्वारा विधिक परीक्षण किया जा रहा है। अनुमति मिलते ही प्रशासकों का कार्यकाल छह महीने तक बढ़ाया जा सकेगा, जिससे प्रशासनिक कामकाज ठप न हो।
ओबीसी आरक्षण का मुद्दा भी हल
पंचायती राज विभाग के अनुसार ओबीसी आरक्षण संबंधी प्रस्ताव को राजभवन से मंजूरी मिल चुकी है। अब ओबीसी आरक्षण का मसौदा लगभग तैयार है और इसे चार जून को कैबिनेट बैठक में रखा जाएगा। यदि कैबिनेट से मंजूरी मिलती है, तो पंचायत चुनाव की दिशा में आगे की प्रक्रिया शुरू हो सकेगी।
संविधान की मूल भावना पर सवाल
वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत के अनुसार 1992 में संविधान के 73वें संशोधन का उद्देश्य गांवों में स्थानीय स्वशासन को मजबूत करना था। लेकिन पंचायतों की यह नेतृत्वविहीन स्थिति संविधान की भावना के विपरीत है। शासन को जल्द से जल्द चुनाव कराने की दिशा में ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।
अब सभी की निगाहें 4 जून को प्रस्तावित मंत्रिमंडल बैठक पर हैं, जहां पंचायत चुनावों और प्रशासकों के भविष्य को लेकर स्थिति स्पष्ट हो सकती है। फिलहाल पंचायतों की संचालन व्यवस्था ठप पड़ चुकी है और संवैधानिक व्यवस्था का पालन होना बेहद आवश्यक हो गया है।