AI के जरिए संरक्षित होंगी गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी बोलियां, देहरादून से नई पहल की शुरुआत
Garhwali, Kumaoni and Jaunsari dialects will be preserved through AI, new initiative started from Dehradun

देहरादून: उत्तराखंड की लोकभाषाओं को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के माध्यम से संरक्षित करने की दिशा में एक अनोखी पहल शुरू की गई है। रविवार 31 अगस्त को देहरादून प्रेस क्लब में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में पद्मश्री जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण और अमेरिका के वाशिंगटन में रहने वाले एआई आर्किटेक्ट सच्चिदानंद सेमवाल ने इसकी जानकारी साझा की।
दोनों का कहना है कि यह प्रयास आने वाली पीढ़ी को गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी जैसी लोक बोलियों से जोड़ने में अहम भूमिका निभाएगा। साथ ही इन भाषाओं को डिजिटल प्लेटफॉर्म पर नई पहचान मिलेगी।
डिजिटल युग में भाषाओं को नई ऊर्जा
प्रीतम भरतवाण ने कहा कि उत्तराखंड की लोकभाषाएं सिर्फ संवाद का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति और पहचान का प्रतीक हैं। लेकिन बदलते दौर में युवाओं का झुकाव हिंदी और अंग्रेजी की ओर बढ़ा है। ऐसे में एआई का इस्तेमाल लोकभाषाओं को जीवित रखने का एक आधुनिक और प्रभावी तरीका साबित होगा।
उन्होंने इसे ऐतिहासिक पहल बताते हुए कहा कि अब नई पीढ़ी चैटजीपीटी, ग्रोक और जेमिनी जैसे एआई टूल्स पर अपनी मातृभाषा में लिखने-बोलने और सीखने में सक्षम होगी।
एआई के लिए बनेगा प्रमाणित डाटा सेट
सच्चिदानंद सेमवाल ने बताया कि इस प्रोजेक्ट के तहत भाषा और संस्कृति विशेषज्ञों की मदद से एक प्रमाणित डाटा सेट तैयार किया जाएगा। इसी डाटा से एआई मॉडल को प्रशिक्षित किया जाएगा ताकि भाषाई शुद्धता और सांस्कृतिक प्रामाणिकता बनी रहे।
उन्होंने कहा कि उनका 23 वर्षों का क्लाउड सॉफ्टवेयर अनुभव और 4 वर्षों का एआई रिसर्च इस दिशा में अहम भूमिका निभाएगा।
सरकारी सहयोग से बढ़ेगी रफ्तार
इस पहल को मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी, भाषा मंत्री सुबोध उनियाल और भाषा सचिव से भी सकारात्मक समर्थन मिला है। सरकार की सहमति मिलने से यह प्रोजेक्ट और अधिक प्रभावी व व्यापक रूप से लागू किया जा सकेगा।
जागर एकेडमी का योगदान
प्रीतम भरतवाण ने बताया कि उनकी जागर एकेडमी इस पहल में भाषाई और सांस्कृतिक योगदान सुनिश्चित करेगी। उन्होंने कहा कि अब तक लोकभाषाओं को बचाने के लिए जमीनी स्तर पर कई काम हुए हैं, लेकिन तकनीक से जुड़ने के बाद यह प्रयास नई ऊंचाइयां छुएगा।
भविष्य की पीढ़ियों के लिए मील का पत्थर
यह प्रोजेक्ट उत्तराखंड की तीन प्रमुख बोलियों को न सिर्फ जीवित रखेगा, बल्कि उन्हें नई पीढ़ियों तक आसान और आधुनिक तरीके से पहुंचाएगा। भरतवाण ने कहा कि “अपनी जड़ों और बोली से जुड़ना ही असली पहचान है, और एआई के जरिये यह अब संभव हो पाएगा।”
देहरादून से शुरू हुई यह एआई पहल उत्तराखंड की लोकभाषाओं को डिजिटल युग में नई ऊर्जा और वैश्विक पहचान दिलाने की दिशा में ऐतिहासिक कदम मानी जा रही है। यदि यह प्रोजेक्ट सफल होता है, तो गढ़वाली, कुमाऊंनी और जौनसारी बोलियां आने वाली पीढ़ियों तक सुरक्षित और सशक्त रूप में पहुंचेंगी।