उत्तराखंड

धराली में तबाही की वैज्ञानिक रिपोर्ट, खीरगंगा का 2.51 लाख टन मलबा बना तबाही का कारण

Scientific report of the devastation in Dharali, 2.51 lakh tonnes of debris of Kheerganga became the cause of devastation

उत्तरकाशी जिले के धराली क्षेत्र में पांच अगस्त को हुई विनाशकारी आपदा का कारण आखिरकार सामने आ गया है। वैज्ञानिक समिति की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, खेरा गाड (खीरगंगा) से आए करीब 2,50,885 टन मलबे ने पूरे इलाके में तबाही मचाई। इस आपदा के बाद हर्षिल क्षेत्र अब भी खतरे की जद में है।

भारी बारिश और भूस्खलन का मेल

आईटी सचिव नितेश झा के निर्देश पर गठित समिति ने लिडार सर्वे, ड्रोन अध्ययन और स्थानीय लोगों से बातचीत के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला। समिति में यूकॉस्ट के महानिदेशक प्रो. दुर्गेश पंत, आईआईआरएस और वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक शामिल थे। रिपोर्ट में बताया गया कि ऊंचाई वाले क्षेत्रों में हुई तेज बारिश से भूस्खलन बांध (लैंडस्लाइड डेम) टूट गया, जिससे विशाल मलबे और पानी का प्रवाह धराली तक पहुंचा।

कई जगह लैंडस्लाइड डेम आउटबर्स्ट फ्लड

वैज्ञानिकों का कहना है कि 4000 मीटर से अधिक ऊंचाई पर लगातार बारिश के कारण मिट्टी की मजबूती घट गई, जिससे बड़े पैमाने पर भूस्खलन और मलबे का बहाव शुरू हो गया। खड़ी ढलानों पर पानी का दबाव बढ़ने से पहाड़ियों की संरचना असंतुलित हो गई। इसके कारण कई स्थानों पर लैंडस्लाइड डेम आउटबर्स्ट फ्लड (LLOF) की घटनाएं भी हुईं।

लिडार सर्वे में सामने आए चौंकाने वाले आंकड़े

लिडार तकनीक से किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि धराली क्षेत्र में मलबे का फैन क्षेत्रफल पहले 0.74 वर्ग किलोमीटर था, जो अब बढ़कर 0.151 वर्ग किलोमीटर तक पहुंच गया है। इस मलबे में लगभग 2.51 लाख टन सामग्री जमा हुई। अध्ययन के दौरान पता चला कि भूस्खलन का सक्रिय क्षेत्र 5000 मीटर ऊंचाई पर था, जबकि मलबा 2570 मीटर तक नीचे बहता चला आया।

जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट असर

रिपोर्ट ने यह भी संकेत दिया कि यह आपदा जलवायु परिवर्तन का सीधा परिणाम है। 124 वर्षों के वर्षा डेटा के विश्लेषण से पता चला कि 1901 से 2024 के बीच मानसून के दौरान बारिश में प्रति वर्ष 0.57 मिमी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। प्री-मानसून सीजन में भी बारिश का स्तर लगातार बढ़ रहा है।

भविष्य के लिए चेतावनी

वैज्ञानिक समिति ने निष्कर्ष निकाला कि धराली की यह त्रासदी केवल एक स्थानीय घटना नहीं, बल्कि बदलती जलवायु और बढ़ती बारिश का संकेत है। विशेषज्ञों ने उच्च हिमालयी क्षेत्रों में निरंतर निगरानी, जलवायु-रोधी ढांचे और शुरुआती चेतावनी प्रणाली को मजबूत करने की सिफारिश की है ताकि भविष्य में ऐसी आपदाओं से नुकसान को कम किया जा सके।

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