
चमोली (उत्तराखंड): हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड की पहचान उसकी भव्य प्राकृतिक छटा और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत से होती है। इन्हीं धरोहरों में से एक है ‘रम्माण उत्सव’, जो हर साल चमोली जिले के सलूड़ डुंग्रा गांव में पारंपरिक उत्साह और आध्यात्मिक भावनाओं के साथ मनाया जाता है। यह लोक उत्सव न केवल धार्मिक आयोजन है, बल्कि गांव की सामूहिक चेतना, परंपरा और सांस्कृतिक पहचान का प्रतीक भी बन चुका है।
यूनेस्को से मिला वैश्विक सम्मान
इस अद्वितीय परंपरा को यूनेस्को ने 2 अक्टूबर 2009 को विश्व सांस्कृतिक धरोहर (Intangible Cultural Heritage) की मान्यता दी थी। यह उत्तराखंड के लिए एक बड़ी उपलब्धि है, जो इसकी सांस्कृतिक विविधता और गहराई को अंतरराष्ट्रीय मंच पर दर्शाती है।
मुखौटा नृत्य में जीवंत होती है रामायण
‘रम्माण’ उत्सव की मुख्य विशेषता संवाद रहित मुखौटा नृत्य है। स्थानीय कलाकार रंग-बिरंगे पारंपरिक वस्त्रों और विशेष मुखौटों में सजकर ढोल और दमाऊं की थाप पर रामायण के विभिन्न प्रसंगों को प्रस्तुत करते हैं। राम जन्म, सीता स्वयंवर, रावण वध जैसे दृश्य बिना संवाद के केवल भाव-भंगिमा, ताल और लय के माध्यम से दर्शाए जाते हैं।
18 तालों की लय में समाए संस्कार और कथा
‘रम्माण’ में इस्तेमाल की जाने वाली 18 तालें संपूर्ण रामकथा को प्रस्तुत करने में सक्षम होती हैं। यह लोक शैली अपने आप में एक दुर्लभ उदाहरण है, जहां संगीत, नृत्य और धर्म एकाकार होकर जनमानस को भावविभोर कर देते हैं।
गांवों की संस्कृति का उत्सव
यह आयोजन केवल सलूड़ डुंग्रा तक सीमित नहीं है। पड़ोसी गांव जैसे डुंग्री, बरोशी और सेलंग में भी यह उत्सव पूरी श्रद्धा से मनाया जाता है। 11 से 13 दिनों तक चलने वाले इस पर्व में परंपरागत पूजा, लोक गीत, जागर और सामूहिक भागीदारी देखने को मिलती है।
संरक्षण की ज़रूरत
‘रम्माण’ केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक जीवित परंपरा है जो नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ती है। इसे संरक्षित रखने और वैश्विक मंच पर और मजबूती से प्रस्तुत करने के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर प्रयास करने होंगे।