पिथौरागढ़ में 500 साल पुरानी परंपरा, हिलजात्रा पर्व का हुआ आगाज़
500 years old tradition of Hiljatra festival started in Pithoragarh

पिथौरागढ़: लोकआस्था और संस्कृति का संगम
उत्तराखंड की सांस्कृतिक धरोहर और लोकआस्था का प्रतीक हिलजात्रा पर्व इस बार भी पूरे जोश और परंपरागत उल्लास के साथ मनाया गया। भादो माह में आयोजित यह अनोखा पर्व न सिर्फ धार्मिक दृष्टि से अहम है, बल्कि यह सीमांत सोर घाटी की ऐतिहासिक पहचान और सामाजिक एकजुटता को भी मजबूत करता है। मुखौटों और लोकनाट्यों से सजा यह आयोजन स्थानीय लोगों और बाहर से आए पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र बना।
500 साल पुरानी परंपरा का गौरव
कहा जाता है कि हिलजात्रा की शुरुआत करीब पांच सौ साल पहले पिथौरागढ़ के कुमौड़ गांव से हुई। लोककथाओं के अनुसार, महर भाइयों ने नेपाल में ‘इंद्रजात्रा’ पर्व में भाग लिया था, जहां उनकी वीरता से प्रभावित होकर नेपाल नरेश ने उन्हें विशेष मुखौटे भेंट किए। इन्हीं मुखौटों से प्रेरणा लेकर सोर घाटी में हिलजात्रा पर्व की परंपरा शुरू हुई, जो आज भी पूरे उत्साह के साथ जीवित है।
खेती-बाड़ी और लोकजीवन से जुड़ा पर्व
हिलजात्रा को केवल धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि सामाजिक और कृषि जीवन से भी जोड़ा जाता है। इस पर्व में किसान, बैल, हिरण और चीतल जैसे पात्र मुखौटों के जरिए मैदान में उतरते हैं। इन झांकियों के माध्यम से न केवल साहस और संस्कृति की झलक मिलती है, बल्कि खेती-किसानी और प्रकृति से गहरा जुड़ाव भी दिखता है। खासकर बैल और किसान का रूपक पहाड़ी जीवनशैली का जीवंत चित्रण करता है।
लखिया भूत: मेले का मुख्य आकर्षण
पर्व का सबसे बड़ा आकर्षण ‘लखिया भूत’ होता है। यह डरावना लेकिन शुभ प्रतीक माना जाता है। इसे भगवान शिव के गण वीरभद्र का रूप भी कहा जाता है। लोग बेसब्री से इसके आगमन का इंतजार करते हैं और मान्यता है कि इसके दर्शन से सुख और समृद्धि का आशीर्वाद मिलता है।
मुख्यमंत्री धामी का संबोधन
इस मौके पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वर्चुअल माध्यम से जनता को शुभकामनाएं दीं। उन्होंने कहा कि हिलजात्रा केवल आस्था का पर्व नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और सामूहिकता की आत्मा है। सीएम ने महर भाइयों की वीरता और लोक परंपरा की विरासत को संजोए रखने पर जोर दिया।
संरक्षण की अपील
जिलाधिकारी विनोद गोस्वामी ने कहा कि हिलजात्रा जैसे पर्व हमारी पहचान हैं और इन्हें संरक्षित करना हम सबकी जिम्मेदारी है। बदलते समय में आने वाली पीढ़ियों को इस परंपरा से जोड़ना जरूरी है, ताकि सांस्कृतिक विरासत जीवित रह सके।
विरासत का संदेश
हिलजात्रा आज भी यह संदेश देता है कि परंपराएं केवल अतीत की कहानियां नहीं, बल्कि समाज के वर्तमान और भविष्य की नींव होती हैं। हर पात्र, चाहे किसान हो, बैल या लखिया भूत, लोकजीवन की गहराई और प्रकृति से जुड़ाव का प्रतीक है। यही कारण है कि 500 साल पुरानी यह परंपरा आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कभी हुआ करती थी।